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अस्बाब कहाँ जान-ए-जहाँ देखते रहना | शाही शायरी
asbab kahan jaan-e-jahan dekhte rahna

ग़ज़ल

अस्बाब कहाँ जान-ए-जहाँ देखते रहना

खुर्शीद अकबर

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अस्बाब कहाँ जान-ए-जहाँ देखते रहना
ख़ाली कोई दम है ये मकाँ देखते रहना

ता-उम्र तिरे शहर में रहना भी नहीं है
मिलती है कहाँ जा-ए-अमाँ देखते रहना

पलकों पे कोई है लब-ए-इज़हार की सूरत
रखता हूँ मैं ख़ंजर पे ज़बाँ देखते रहना

आँसू मिरे बच्चों की तरह ख़ून से खेलें
कुछ खेल नहीं घर का ज़ियाँ देखते रहना

इक अर्सा-ए-जाँ तक ही ये मंज़र नहीं मौक़ूफ़
फिर क़िस्सा-ए-आलम है धुआँ देखते रहना

बौछार है तीरों की वो रहवार अकेला
कितना है शिताबी ये समाँ देखते रहना

दुनिया किसी मक़्तल में है ज़िंदों की गवाही
जाते हैं कहाँ पीर ओ जवाँ देखते रहना

होगी किसी मंजधार के सीने पे मिरी नाव
दरिया है मिरे साथ रवाँ देखते रहना

तारीक उफ़ुक़ पर वो अजब शान से निकला
'ख़ुर्शीद' से रौशन है जहाँ देखते रहना