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'असर' अब तक फ़रेब खाता है | शाही शायरी
asar ab tak fareb khata hai

ग़ज़ल

'असर' अब तक फ़रेब खाता है

मीर असर

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'असर' अब तक फ़रेब खाता है
तेरी बातों को मान जाता है

दिल कड़ा कर के तुझ से कुछ तो कहूँ
जी में सौ बार ये ही आता है

ख़ुश गुज़रती नहीं है कोई आन
इश्तियाक़ अब निपट सताता है

दिल को वादे से कल नहीं होती
रोज़ तू आज-कल बताता है

बुत-ए-काफ़िर की बे-मुरव्वतियाँ
ये हमें सब ख़ुदा दिखाता है

दिल मिरा तू ने ही चुराया है
नहीं यूँ नज़रें क्यूँ चुराता है

मैं भी नासेह उसे समझता हूँ
गो बुरा है प मुझ को भाता है

तेरे दर पर मैं कब कब आता हूँ
दिल मुझे बार बार लाता है

नाला-ओ-आह को मिरे सुन कर
कहते हो याँ किसे सुनाता है

रोज़-ओ-शब किस तरह बसर मैं करूँ
ग़म तिरा अब तो जी ही खाता है

दिल-ए-ना-क़द्र-दाँ ये गौहर-ए-अश्क
नित यूँही ख़ाक में मिलाता है

जी ही जाता है दम-ब-दम मेरा
तुझ को बावर नहीं ये आता है

शम्अ-रू दिल ये मिस्ल-ए-परवाना
नाहक़ अपने तईं जलाता है

तेरी इन शोला-ख़ूयों के हुज़ूर
बे-तरह तुझ पे जी जलाता है

क्या करूँ आह मैं 'असर' का इलाज
इस घड़ी उस का जी ही जाता है