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असर आह का गर दिखाएँगे हम | शाही शायरी
asar aah ka gar dikhaenge hum

ग़ज़ल

असर आह का गर दिखाएँगे हम

मीर मेहदी मजरूह

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असर आह का गर दिखाएँगे हम
अभी खींच कर तुम को लाएँगे हम

ज़रा रह तू ऐ दश्त-ए-आवारगी
तिरा ख़ूब ख़ाका उड़ाएँगे हम

फ़साना तिरी ज़ुल्फ़-ए-शब-रंग का
बढ़ेगा जहाँ तक बढ़ाएँगे हम

वही दर्द-ए-फ़ुर्क़त वही इंतिज़ार
भला मर के क्या चैन पाएँगे हम

वो गुमराह ग़ैरों के हमराह है
उसे राह पर क्यूँ कि लाएँगे हम

क़फ़स से हुआ इज़्न-ए-परवाज़ कब
ये ख़्वाहिश ही दिल से उड़ाएँगे हम

तिलिस्म-ए-मोहब्बत है आशिक़ का हाल
उन्हें भी ये क़िस्सा सुनाएँगे हम

वो नख़वत से हैं आसमाँ से परे
कहाँ से उन्हें ढूँढ लाएँगे हम

न कर आह ये शोरिश-अफ़ज़ाइयाँ
तुझे भी कभी आज़माएँगे हम

न टूटेगा सर-रिश्ता-ए-इख़्तिलात
वो खींचेंगे जितना बढ़ाएँगे हम

ये माना कि हो रश्क-ए-हूर-ओ-परी
मगर आदमियत सिखाएँगे हम

हज़र तीर-ए-मिज़्गाँ की बोछाड़ से
ये इक दिल कहाँ तक बचाएँगे हम

हमें ज़हर-ओ-ख़ंजर की क्यूँ है तलाश
शब-ए-ग़म में क्या मर न जाएँगे हम

न निकला कोई ढब तो बन कर ग़ुबार
नज़र में तुम्हारी समाएँगे हम

कहाँ घर में मुफ़्लिस के फ़र्श-ओ-फ़रोश
वो आए तो आँखें बिछाएँगे हम

तिरे क़द से की सर्व ने हम-सरी
उसे आज सीधा बनाएँगे हम

नहीं ग़ुस्ल-ए-मय्यत की जा क़त्ल-गाह
मगर ख़ाक-ओ-ख़ूँ में नहाएँगे हम

रह-ए-इश्क़ से ना-बलद है अभी
ख़िज़र को ये रस्ता बताएँगे हम

हुआ वस्ल भी तो मज़ा कौन सा
वो रूठेंगे हर दम मनाएँगे हम

शब-ओ-रोज़ दिल को कुरेदें न क्यूँ
यहीं से पता उस का पाएँगे हम

अबस है ये 'मजरूह' तूल-ए-अमल
बखेड़े ये सब छोड़ जाएँगे हम