अर्ज़-ओ-समा पे रंग था कैसा उतर गया
आँधी चली तो शाम का चेहरा उतर गया
तूफ़ाँ की ज़द न शोर-ए-तलातुम मुझे बताओ
मैं मौज में नहीं हूँ कि दरिया उतर गया
क्या क्या रही कनार-ए-मोहब्बत की धुन मुझे
जिन पानियों में उस ने उतारा उतर गया
इक कश्मकश में अब हैं समुंदर पड़े हुए
सहरा की तह में फिर कोई प्यासा उतर गया
बिखरा पड़ा है ख़ाक पे यूँ चाँदनी का जिस्म
जैसे मिरी ही रूह में तेशा उतर गया
'जाफ़र' कभी न ये मेरे वहम-ओ-गुमाँ में था
मैं और उस के ध्यान से ऐसा उतर गया

ग़ज़ल
अर्ज़-ओ-समा पे रंग था कैसा उतर गया
जाफ़र शिराज़ी