अर्श से रुख़ जानिब-ए-दुनिया-ए-दूँ करना पड़ा
बंदगी में क्या से क्या ये सर निगूँ करना पड़ा
मिन्नत-ए-साहिल भी सर ले ली भँवर में डोलते
हाँ ये हीला भी हमें बहर-ए-सुकूँ करना पड़ा
सामने उस यार के भी और सर-ए-दरबार भी
एक ये दिल था जिसे हर बार ख़ूँ करना पड़ा
हम कि थे अहल-ए-सफ़ा ये राज़ किस पर खोलते
क़ाफ़िले का साथ आख़िर तर्क क्यूँ करना पड़ा
ख़म न हो पाया तो सर हम ने क़लम करवा लिया
वूँ न कुछ 'माजिद' हुआ हम से तो यूँ करना पड़ा

ग़ज़ल
अर्श से रुख़ जानिब-ए-दुनिया-ए-दूँ करना पड़ा
माज़िद सिद्दीक़ी