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अरसा-ए-ख़्वाब से उठ हल्क़ा-ए-ता'बीर में आ | शाही शायरी
arsa-e-KHwab se uTh halqa-e-tabir mein aa

ग़ज़ल

अरसा-ए-ख़्वाब से उठ हल्क़ा-ए-ता'बीर में आ

नदीम सिरसीवी

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अरसा-ए-ख़्वाब से उठ हल्क़ा-ए-ता'बीर में आ
गुम-शुदा रो'ब-ए-जुनूँ कासा-ए-तश्हीर में आ

इंतिहा मब्दा-ए-हस्ती की फ़ना है या बक़ा
ग़ौर से देखते हैं बख़्त की तस्वीर में आ

ऐ ख़राबात-ए-तनफ़्फ़ुर के परेशान मकीं
गर सुकूँ चाहता है इश्क़ की ता'मीर में आ

हिद्दत-ए-दीद निगाहों की इबारत से निकल
और यख़-बस्ता मिरे रौज़न-ए-तहरीर में आ

चढ़ के फिर सर पे मिरे बोले असीरी का ख़ुमार
क़ैद कर ले मुझे फिर ज़ुल्फ़ की ज़ंजीर में आ

अहद-ए-माज़ी के ख़ुश-आइंद भटकते लम्हे
वक़्त आ पहूँचा है अब हाल की जागीर में आ

जल-बुझे गर्मी-ए-अनफ़ास से दोनों का वजूद
घोलने ख़ुद को मिरे क़ुर्ब की तासीर में आ

लज़्ज़त-ए-वस्ल को हासिल हो ज़मीं की जन्नत
मुझ से मिलने के लिए वादी-ए-कश्मीर में आ

ज़ेर-ए-पा रख के सभी अक्स-ए-फ़ुसून-ए-तक़दीर
फिर जवाँ होने को गहवारा-ए-तदबीर में आ

ऐ ख़िज़ाँ-ज़ाद अगर चाहता है रिज़्क़-ए-बहार
दामन-ए-ज़ीस्त लिए रौज़ा-ए-शब्बीर में आ

आजिज़ी कहने लगी गर हो बुलंदी की तलब
दिल झुका दाइरा-ए-ना'रा-ए-तकबीर में आ

दिया उगते हुए सूरज ने ये पैग़ाम 'नदीम'
इन अँधेरों से निकल ख़ेमा-ए-तनवीर में आ