अक़्ल के जाल में फँसी ही नहीं 
ज़िंदगी आज तक खुली ही नहीं 
मुझ में जीता रहा सदा कोई 
ज़िंदगी अपनी मैं ने जी ही नहीं 
सख़्त इतनी अना की थी दीवार 
फिर किसी भी तरह गिरी ही नहीं 
मैं ने दुनिया समेट ली तो खुला 
काम की कोई चीज़ थी ही नहीं 
चाँद के साथ हो गई रुख़्सत 
जैसे वो इस जहाँ की थी ही नहीं 
जिस से सैराब रूह हो जाती 
ऐसी बारिश कभी हुई ही नहीं 
सैंकड़ों ज़ख़्म हैं ज़माने के 
दिल में यादों की इक अनी ही नहीं 
क़ैद आँखों में है बयाबाँ भी 
ग़म के कूज़े में इक नदी ही नहीं
        ग़ज़ल
अक़्ल के जाल में फँसी ही नहीं
मुनीर सैफ़ी

