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अक़्ल दौड़ाई बहुत कुछ तो गुमाँ तक पहुँचे | शाही शायरी
aql dauDai bahut kuchh to guman tak pahunche

ग़ज़ल

अक़्ल दौड़ाई बहुत कुछ तो गुमाँ तक पहुँचे

बेताब अज़ीमाबादी

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अक़्ल दौड़ाई बहुत कुछ तो गुमाँ तक पहुँचे
कुछ हक़ीक़त भी है इंसाँ की कहाँ तक पहुँचे

इश्क़ के शो'ले भड़क कर रग-ए-जाँ तक पहुँचे
आग सी आग है ये आग जहाँ तक पहुँचे

लड़ गई उन से नज़र खिच गए अबरू उन के
मा'रके इश्क़ के अब तीर-ओ-कमाँ तक पहुँचे

दिल से बाहर हो तिरा राज़ गवारा है किसे
ये कोई बात नहीं है कि ज़बाँ तक पहुँचे

मार ले वो निगह-ए-नाज़ तो रुत्बा हो बुलंद
सर हो ऊँचा मिरा गर नोक-ए-सिनाँ तक पहुँचे

कोई दीवानगी-ए-इश्क़ का क़िस्सा छेड़े
सिलसिला उस का ख़ुदा जाने कहाँ तक पहुँचे

सुर्ख़ी-ए-ख़ार-ए-बयाबाँ ये पता देती है
कि उधर से तिरे दीवाने यहाँ तक पहुँचे

रिंद पुर-कैफ़ ब-यक-गर्दिश-ए-चश्म-ए-साक़ी
ग़ायत-ए-दाएरा-ए-कौन-ओ-मकाँ तक पहुँचे

रुख़ से पर्दे को हटा हुस्न-ए-यक़ीं तक पहुँचा
आख़िर इंसान हूँ यूँ अक़्ल कहाँ तक पहुँचे

राह में और भी दीवानों से मिलते जुलते
पूछते पूछते हम उन के मकाँ तक पहुँचे

शर्बत-ए-दीद न हो तेग़ का पानी ही सही
कोई ठंडक तो मिरे क़ल्ब-ए-तपाँ तक पहुँचे

ले गए इश्क़ की बाज़ी प सफ़ाई 'बेताब'
जान पर खेल गए जान-ए-जहाँ तक पहुँचे