अपनी ज़मीं से दूर ज़मान-ओ-मकाँ से दूर
हम ने सजा लिया है क़फ़स आशियाँ से दूर
माना कि हम वतन से अज़ीज़ों से दूर हैं
तहज़ीब से जुदा हैं न उर्दू ज़बाँ से दूर
महसूर तंगना-ए-मसालिक में हम नहीं
दैर-ओ-हरम से दूर हैं कू-ए-बुताँ से दूर
महसूस कर रहे हैं विलायत में आज-कल
हिन्दोस्ताँ में रहते हैं हिन्दोस्ताँ से दूर
सोज़-ए-यक़ीन मिशअल-ए-राह-ए-हयात है
तश्कील से बुलंद हैं वहम-ओ-गुमाँ से दूर
'सुल्तान' असीर-ए-ज़ुल्फ़ हुए भी तो किस के आप
दिल से बहुत क़रीब हैं और जिस्म-ओ-जाँ से दूर
ग़ज़ल
अपनी ज़मीं से दूर ज़मान-ओ-मकाँ से दूर
सुलतान फ़ारूक़ी