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अपनी उलझन को बढ़ाने की ज़रूरत क्या है | शाही शायरी
apni uljhan ko baDhane ki zarurat kya hai

ग़ज़ल

अपनी उलझन को बढ़ाने की ज़रूरत क्या है

नदीम गुल्लानी

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अपनी उलझन को बढ़ाने की ज़रूरत क्या है
छोड़ना है तो बहाने की ज़रूरत क्या है

लग चुकी आग तो लाज़िम है धुआँ उट्ठेगा
दर्द को दिल में छुपाने की ज़रूरत क्या है

उम्र भर रहना है ताबीर से गर दूर तुम्हें
फिर मिरे ख़्वाब में आने की ज़रूरत क्या है

अजनबी रंग छलकता हो अगर आँखों से
उन से फिर हाथ मिलाने की ज़रूरत क्या है

आज बैठे हैं तिरे पास कई दोस्त नए
अब तुझे दोस्त पुराने की ज़रूरत क्या है

साथ रहते हो मगर साथ नहीं रहते हो
ऐसे रिश्ते को निभाने की ज़रूरत क्या है