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अपनी तरह मुझे भी ज़माने में आम कर | शाही शायरी
apni tarah mujhe bhi zamane mein aam kar

ग़ज़ल

अपनी तरह मुझे भी ज़माने में आम कर

रशीद क़ैसरानी

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अपनी तरह मुझे भी ज़माने में आम कर
ऐ ज़ात-ए-अम्बरीं मुझे ख़ुशबू मक़ाम कर

उन पत्थरों को राख न कर सोज़-ए-नुत्क़ से
मुझ से कलाम कर कभी मुझ से कलाम कर

सदियों की मैं कशीद हूँ ऐ साक़ी-ए-अज़ल
मेरे वजूद को भी कभी सर्फ़-ए-जाम कर

आज़ाद हो चुका हूँ मैं क़ैद-ए-हवास से
बाम-ए-नज़र से अब मिरा बाला मक़ाम कर

मुझ को निशान-ए-सल्तनत-ए-बे-निशान दे
दुनिया-ए-नाम-ओ-नंग को बे-नंग-ओ-नाम कर

सारा निज़ाम-ए-शम्स कहीं ये बुझा न दे
इस सोख़्ता किरन का कोई इंतिज़ाम कर

आलम में है सबात फ़क़त मेरी रूह को
मुझ में समा के अब कोई कार-ए-दवाम कर

कोई मकीन-ए-क़र्या-ए-जाँ तू भी ढूँढ ले
तू भी 'रशीद' आज किसी को सलाम कर