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अपनी तहज़ीब की दीवार सँभाले हुए हैं | शाही शायरी
apni tahzib ki diwar sambhaale hue hain

ग़ज़ल

अपनी तहज़ीब की दीवार सँभाले हुए हैं

सुल्तान अख़्तर

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अपनी तहज़ीब की दीवार सँभाले हुए हैं
मेरे बच्चे मिरा घर-बार सँभाले हुए हैं

तू ने कुछ भी न दिया हम को अज़िय्यत के सिवा
ज़िंदगी हम तुझे बेकार सँभाले हुए हैं

कोई आता नहीं अब उन की क़दम-बोसी को
दोनों हाथों से वो दस्तार सँभाले हुए हैं

वक़्त से आगे निकल जाएँगे जब चाहेंगे
दिल-गिरफ़्ता अभी रफ़्तार सँभाले हुए हैं

मुफ़लिसी झाँकती है रौज़न ओ दर से लेकिन
हम लरज़ती हुई दीवार सँभाले हुए हैं

ये भी इक तुर्फ़ा तमाशा है ख़ुदा-वन्द-ए-जहाँ
तेरी दुनिया को गुनहगार सँभाले हुए हैं

फ़ाक़ा-मस्ती में भी जीते हैं ब-आग़ाज़-ए-जुनूँ
ज़िंदगी हम तिरा पिंदार सँभाले हुए हैं

आबदीदा कभी होने नहीं देते 'अख़्तर'
मुझ को अब तक मिरे ग़म-ख़्वार सँभाले हुए हैं