अपनी सोचें शिकस्त-ओ-ख़ाम न कर
चल पड़ा है तो फिर क़याम न कर
मैं भी हस्सास दिल का मालिक हूँ
सारे एहसास अपने नाम न कर
जिस्म चाहे ग़ुलाम हो जाए
ज़ेहनियत को मगर ग़ुलाम न कर
मैं ख़ुद अपनी नज़र से गिर जाऊँ
तू मिरा इतना एहतिराम न कर
तेरे पीछे ग़ुबार उड़ने लगे
ख़ुद को तू इतना तेज़-गाम न कर
लोग मश्कूक हो चले 'आज़र'
अब हर इक शख़्स को सलाम न कर

ग़ज़ल
अपनी सोचें शिकस्त-ओ-ख़ाम न कर
मुश्ताक़ आज़र फ़रीदी