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अपनी सोचें शिकस्त-ओ-ख़ाम न कर | शाही शायरी
apni sochen shikast-o-KHam na kar

ग़ज़ल

अपनी सोचें शिकस्त-ओ-ख़ाम न कर

मुश्ताक़ आज़र फ़रीदी

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अपनी सोचें शिकस्त-ओ-ख़ाम न कर
चल पड़ा है तो फिर क़याम न कर

मैं भी हस्सास दिल का मालिक हूँ
सारे एहसास अपने नाम न कर

जिस्म चाहे ग़ुलाम हो जाए
ज़ेहनियत को मगर ग़ुलाम न कर

मैं ख़ुद अपनी नज़र से गिर जाऊँ
तू मिरा इतना एहतिराम न कर

तेरे पीछे ग़ुबार उड़ने लगे
ख़ुद को तू इतना तेज़-गाम न कर

लोग मश्कूक हो चले 'आज़र'
अब हर इक शख़्स को सलाम न कर