अपनी सच्चाई का आज़ार जो पाले हुए हैं
ख़ुद को हम गर्दिश-ए-आफ़ात में डाले हुए हैं
बंद मुट्ठी में जो ख़ुशबू को सँभाले हुए हैं
ये समझते हैं कि तूफ़ान को टाले हुए हैं
हैं तो आबाद मगर दर-बदरी की ज़द पर
वो भी मेरी ही तरह घर से निकाले हुए हैं
अपनी रफ़्तार से आगे भी निकल सकता हूँ
मुझ पे कब हावी मिरे पाँव के छाले हुए हैं
अब किसी बाब-ए-समाअ'त पे न दस्तक देंगे
दफ़्न सहरा की फ़ज़ाओं में जो नाले हुए हैं
सुर्ख़-रू जो है वो मेरा कोई हम-ज़ाद है क्या
नोक-ए-नेज़ा पे वो सर किस का उछाले हुए हैं
उन के शाने हैं हर इक बार-ए-गराँ से ख़ाली
अब वो दस्तार नहीं सर को सँभाले हुए हैं
वज़्अ का पास भी रखने के रहे अहल कहाँ
ख़ुद को हम और किसी साँचे में ढाले हुए हैं
उस की ख़ुशबू से तिलिस्मात का दर खुलने लगा
दीदा-ओ-दिल क़द-ओ-गेसू के हवाले हुए हैं
ग़ज़ल
अपनी सच्चाई का आज़ार जो पाले हुए हैं
अरमान नज्मी