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अपनी क़िस्मत का सितारा सर-ए-मिज़्गाँ देखा | शाही शायरी
apni qismat ka sitara sar-e-mizhgan dekha

ग़ज़ल

अपनी क़िस्मत का सितारा सर-ए-मिज़्गाँ देखा

तालिब बाग़पती

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अपनी क़िस्मत का सितारा सर-ए-मिज़्गाँ देखा
आज हम ने असर-ए-जज़्बा-ए-पिन्हाँ देखा

अब किसे ढूँड रही है निगह-ए-नाज़ बता
हासिल-ए-जौर मिरे ज़ूद-पशेमाँ देखा

जो सताता है वही दिल में जगह पाता है
ये मोहब्बत में नई तर्ज़ का अरमाँ देखा

अब ये शिकवा है वो पहली सी घटाएँ ही नहीं
हम न कहते थे न कर ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ देखा

शिकवा आसान था अब उस की पशेमानी है
किन निगाहों से तुम्हें सर-ब-गरेबाँ देखा

अपने मरने का नहीं ग़म ये मलाल आता है
क्यूँ ज़माने ने तुम्हें बाल-ए-परेशाँ देखा

रात आती है तो खा कर उसी गेसू की क़सम
हम ने 'तालिब' का मुक़द्दर शब-ए-हिज्राँ देखा