अपनी नज़रों को भी दीवार समझता होगा
जो मुसाफ़िर तिरे कूचे से गुज़रता होगा
आज ठहरा है मिरा हर्फ़-ए-वफ़ा क़ाबिल-ए-दार
कल तू ही मेरी वफ़ाओं को तरसता होगा
ज़ब्त का हद से गुज़रना भी है इक सैल-ए-बला
दर्द क्या होगा अगर हद से गुज़रता होगा
उस की तारीफ़ में जब कोई कही जाए ग़ज़ल
कुछ न कुछ रंग क़सीदे का झलकता होगा
कुश्ता-ए-ज़ब्त-ए-फुग़ाँ नग़्मा-ए-बे-साज़-ओ-सदा
उफ़ वो आँसू जो लहू बन के टपकता होगा
शे'र बन कर मिरे काग़ज़ पे जो आया है लहू
अश्क बन कर तिरे दामन से उलझता होगा
हैं जो लर्ज़ां मह-ओ-अंजुम की शुआएँ 'अख़्गर'
कोई बेताब फ़लक पर भी तड़पता होगा

ग़ज़ल
अपनी नज़रों को भी दीवार समझता होगा
हनीफ़ अख़गर