अपनी नाकाम तमन्नाओं का मातम न करो 
थम गया दौर-ए-मय-ए-नाब तो कुछ ग़म न करो 
और भी कितने तरीक़े हैं बयान-ए-ग़म के 
मुस्कुराती हुई आँखों को तो पुर-नम न करो 
हाँ ये शमशीर-ए-हवादिस हो तो कुछ बात भी है 
गर्दनें तौक़-ए-ग़ुलामी के लिए ख़म न करो 
तुम तो हो रिंद तुम्हें महफ़िल-ए-जम से क्या काम 
बज़्म-ए-जम हो गई बरहम तो कोई ग़म न करो 
बादा-ए-कोहना ढले साग़र-ए-नौ में 'फ़ितरत' 
ज़ौक़-ए-फ़रियाद को आज़ुर्दा-ए-मातम न करो
        ग़ज़ल
अपनी नाकाम तमन्नाओं का मातम न करो
अब्दुल अज़ीज़ फ़ितरत

