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अपनी ना-कर्दा-गुनाही की सज़ा हो जैसे | शाही शायरी
apni na-karda-gunahi ki saza ho jaise

ग़ज़ल

अपनी ना-कर्दा-गुनाही की सज़ा हो जैसे

वकील अख़्तर

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अपनी ना-कर्दा-गुनाही की सज़ा हो जैसे
हम से इस शहर में हर एक ख़फ़ा हो जैसे

सोचते चेहरों पे जलते हुए आसार-ए-हयात
यक-ब-यक वक़्त का इरफ़ान हुआ हो जैसे

ये धुँदलके ये दर-ओ-बाम का गम्भीर सुकूत
चाँदनी रात में महताब लुटा हो जैसे

तुझ से मिलने की तमन्ना तिरी क़ुर्बत का ख़याल
रेग-ज़ारों में कोई फूल खिला हो जैसे

वही ख़ूबी वही इख़्लास-ओ-मुरव्वत के निशाँ
हैदराबाद कि इक शहर-ए-वफ़ा हो जैसे