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अपनी ना-कर्दा-गुनाही का सिला भी रख ले | शाही शायरी
apni na-karda-gunahi ka sila bhi rakh le

ग़ज़ल

अपनी ना-कर्दा-गुनाही का सिला भी रख ले

ख़ालिद रहीम

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अपनी ना-कर्दा-गुनाही का सिला भी रख ले
दिल के ख़ाने में ज़रा ख़ौफ़-ए-ख़ुदा भी रख ले

तुझ को ले जाएगी सन्नाटे में इक रोज़ हयात
अपने कानों के लिए संग-ए-सदा भी रख ले

बुझ न जाए कहीं एहसास के शो'लों का मिज़ाज
मुंजमिद वक़्त है थोड़ी सी हवा भी रख ले

फ़ासला और बढ़ा देगी अना की दहलीज़
दरमियाँ ज़ीना-ए-इख़्लास-ए-वफ़ा भी रख ले

ज़िंदगी दश्त-ए-तिलिस्मात की जानिब है रवाँ
कुछ तो हमराह बुज़ुर्गों की दुआ भी रख ले

रोज़ का मिलना गिराँ-बार-ए-तअ'ल्लुक़ न बने
बे-सबब उस से कभी ख़ुद को जुदा भी रख ले