अपनी मर्ज़ी का रुख़ मैं अपनाऊँ
काश मैं भी हवा सी हो जाऊँ
मान लेना के तुम ख़याल में हो
जब भी मैं फूल जैसा मुस्काऊँ
क्या कहा तुम पे मैं यक़ीं कर लूँ
या'नी इक बार फिर बिखर जाऊँ
ख़्वाहिशें तो हज़ार कर लूँ मैं
काश पूरी भी कोई कर पाऊँ
चाँद भी जा रहा है अब सोने
मैं भी अब थोड़ी देर सो जाऊँ
ग़ज़ल
अपनी मर्ज़ी का रुख़ मैं अपनाऊँ
सोनरूपा विशाल