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अपनी मजबूरी बताता रहा रो कर मुझ को | शाही शायरी
apni majburi batata raha ro kar mujhko

ग़ज़ल

अपनी मजबूरी बताता रहा रो कर मुझ को

इफ़्तिख़ार नसीम

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अपनी मजबूरी बताता रहा रो कर मुझ को
वो मिला भी तो किसी और का हो कर मुझ को

मैं ख़ुदा तो नहीं जो उस को दिखाई न दिया
ढूँढता मेरा पुजारी कभी खो कर मुझ को

पा लिया जिस ने तह-ए-आब भी अपना साहिल
मुतमइन था मिरा तूफ़ान डुबो कर मुझ को

रेग-ए-साहिल पे लिखी वक़्त की तहरीर हूँ मैं
मौज आए तो चली जाएगी धो कर मुझ को

नींद ही जैसे कोई कुंज-ए-अमाँ है अब तो
चैन मिलता है बहुत देर से सो कर मुझ को

फ़स्ल-ए-गुल हो तो निकाले मुझे इस बर्ज़ख़ से
भूल जाए न तह-ए-संग वो बो कर मुझ को