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अपनी हस्ती को यहाँ बे-मुद्दआ समझा था मैं | शाही शायरी
apni hasti ko yahan be-muddaa samjha tha main

ग़ज़ल

अपनी हस्ती को यहाँ बे-मुद्दआ समझा था मैं

अमजद नजमी

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अपनी हस्ती को यहाँ बे-मुद्दआ समझा था मैं
क्या समझना चाहिए था और क्या समझा था मैं

तुम को अपने दर्द-ए-दिल की गर दवा समझा था मैं
क्या ग़लत समझा था मैं बिल्कुल बजा समझा था मैं

किस ग़लत-फ़हमी में अपनी उम्र सारी कट गई
इक वफ़ा-ना-आश्ना को बा-वफ़ा समझा था मैं

कुछ न पूछो राह-ए-उल्फ़त में मिरी वामांदगी
काकुल-ए-पेचीदा को ज़ंजीर-ए-पा समझा था मैं

उस का हर हर घूँट था ज़हर-ए-हलाहल से सिवा
ज़िंदगी को चश्मा-ए-आब-ए-बक़ा समझा था मैं

सच है 'नजमी' इश्क़ अज़ीं बिसयार करदस्त-ओ-कुनद
सर का देना एक आईन-ए-वफ़ा समझा था मैं