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अपनी फ़ितरत ये नहीं जो सह गई | शाही शायरी
apni fitrat ye nahin jo sah gai

ग़ज़ल

अपनी फ़ितरत ये नहीं जो सह गई

मेगी आसनानी

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अपनी फ़ितरत ये नहीं जो सह गई
बात जो कहनी थी मैं वो कह गई

जिस्म-ओ-जाँ से मिट गई हर आरज़ू
इक तिरी उम्मीद तह-ब-तह गई

काश आ सकती हवा के साथ मैं
आ चुकी घर जब यहाँ से वो गई

लाख लफ़्ज़ों ने दिया हो साथ पर
आरज़ू दिल की थी दिल में रह गई

चाँद खिड़की में न आया आज फिर
आँख में इक झील थी वो बह गई