अपनी और किसी से किस दिन राह-ओ-रस्म-ओ-रिफ़ाक़त थी
आती जाती साँस थी जिस की साअ'त संगत थी
तुझ को ख़याल न आया वर्ना किस दिन इतने गराँ थे हम
इक दो हर्फ़-ए-मुरव्वत सोचो कौन सी ऐसी क़ीमत थी
मैं भी अपनी धुन में रवाँ था वो भी अपने-आप में गुम
बात की नौबत कैसे आती किस को इतनी फ़ुर्सत थी
बीत चुके वो दिन वो ज़माने राहत-भरी अज़िय्यत के
याद किसे अब कौन बताए दूरी थी कि वो क़ुर्बत थी
कूचा कूचा फैलें बातें क़त्अ-ए-तअ'ल्लुक़-ख़ातिर की
औरों का तो ज़िक्र ही क्या दीवार-ओ-दर को हैरत थी
कितने हैं जो अब तक पहुँचे अपनी ज़ात की मंज़िल तक
हर्फ़-ओ-बयाँ से बात है बाहर ऐसी कड़ी मसाफ़त थी
गोशा-गीर फ़क़ीर थे हम तो मस्लक इज्ज़-ओ-नियाज़ 'बशीर'
क्यूँ बे-सूद किसी से उलझते अपनी किस से अदावत थी
ग़ज़ल
अपनी और किसी से किस दिन राह-ओ-रस्म-ओ-रिफ़ाक़त थी
बशीर अहमद बशीर