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अपनी अना से बर-सर-ए-पैकार मैं ही था | शाही शायरी
apni ana se bar-sar-e-paikar main hi tha

ग़ज़ल

अपनी अना से बर-सर-ए-पैकार मैं ही था

कबीर अजमल

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अपनी अना से बर-सर-ए-पैकार मैं ही था
सच बोलने की धुन थी सर-ए-दार मैं ही था

साज़िश रची गई थी कुछ ऐसी मिरे ख़िलाफ़
हर अंजुमन में बाइस-ए-आज़ार मैं ही था

सौ करतबों से ज़ख़्म लगाए गए मुझे
शायद कि अपने अहद का शहकार मैं ही था

लम्हों की बाज़-गश्त में सदियों की गूँज थी
और आगही का मुजरिम-ए-इज़हार मैं ही था

तहज़ीब की रगों से टपकते लहू में तर
दहलीज़ में पड़ा हुआ अख़बार मैं ही था

'अजमल' सफ़र में साथ रहीं यूँ सऊबतें
जैसे कि हर सज़ा का सज़ा-वार मैं ही था