अपनी अना के गुम्बद-ए-बे-दर में बंद है
लेकिन ब-ज़ोम-ए-ख़ुद वो फ़लक तक बुलंद है
हर मंज़िल उन के वास्ते बस इक ज़क़ंद है
वो लोग अपना अज़्म ही जिन का समंद है
आता है बार बार फ़रेब-ए-ख़ुलूस में
क्या सादा-लौह अपना दिल-ए-दर्द-मंद है
जो इल्तिहाब-ए-आतिश-ए-ग़म से है नाला-ए-कश
वो दिल नहीं चटख़्ता हुआ इक सिपंद है
शायद मआल-ए-ख़ंदा-ए-गुल है निगाह में
लब पर कली कली के अजब ज़हर-ए-ख़ंद है
हर ज़ी-हयात इस में रहे उम्र भर असीर
तार-ए-नफ़स भी एक तरह की कमंद है
शामिल हैं तल्ख़ियाँ भी हलावत के साथ साथ
ये ज़िंदगी है ज़हर-ए-हलाहल न क़ंद है
'तनवीर' शहर-ए-संग में शीशागरी की बात
यारान-ए-मेहरबाँ को बहुत ना-पसंद है
ग़ज़ल
अपनी अना के गुम्बद-ए-बे-दर में बंद है
सूरज तनवीर