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अपनी अना के गुम्बद-ए-बे-दर में बंद है | शाही शायरी
apni ana ke gumbad-e-be-dar mein band hai

ग़ज़ल

अपनी अना के गुम्बद-ए-बे-दर में बंद है

सूरज तनवीर

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अपनी अना के गुम्बद-ए-बे-दर में बंद है
लेकिन ब-ज़ोम-ए-ख़ुद वो फ़लक तक बुलंद है

हर मंज़िल उन के वास्ते बस इक ज़क़ंद है
वो लोग अपना अज़्म ही जिन का समंद है

आता है बार बार फ़रेब-ए-ख़ुलूस में
क्या सादा-लौह अपना दिल-ए-दर्द-मंद है

जो इल्तिहाब-ए-आतिश-ए-ग़म से है नाला-ए-कश
वो दिल नहीं चटख़्ता हुआ इक सिपंद है

शायद मआल-ए-ख़ंदा-ए-गुल है निगाह में
लब पर कली कली के अजब ज़हर-ए-ख़ंद है

हर ज़ी-हयात इस में रहे उम्र भर असीर
तार-ए-नफ़स भी एक तरह की कमंद है

शामिल हैं तल्ख़ियाँ भी हलावत के साथ साथ
ये ज़िंदगी है ज़हर-ए-हलाहल न क़ंद है

'तनवीर' शहर-ए-संग में शीशागरी की बात
यारान-ए-मेहरबाँ को बहुत ना-पसंद है