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अपनी आशुफ़्ता तबीअ'त का मज़ा लेता हूँ | शाही शायरी
apni aashufta tabiat ka maza leta hun

ग़ज़ल

अपनी आशुफ़्ता तबीअ'त का मज़ा लेता हूँ

राहिल बुख़ारी

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अपनी आशुफ़्ता तबीअ'त का मज़ा लेता हूँ
कश लगाता हूँ अज़िय्यत का मज़ा लेता हूँ

आँख भी सामने होने पे यक़ीं रखती है
ख़्वाब-दर-ख़्वाब सुहूलत का मज़ा लेता हूँ

तू मिरे हिस्से की वहशत का मज़ा लेता है
और मैं तेरी मशिय्यत का मज़ा लेता हूँ

चाँदनी सर्द हवा फूल परिंदे ख़ुश्बू
रात-भर तेरी ज़रूरत का मज़ा लेता हूँ

झील में आग लगाता हूँ बड़ी फ़ुर्सत से
और फिर बैठ के फ़ुर्सत का मज़ा लेता हूँ

ख़ौफ़ खाता हूँ कहीं ख़ुद से न उक्ता जाऊँ
वक़्त की ताज़ा रिवायत का मज़ा लेता हूँ