EN اردو
अपनी आँखों को कभी ठीक से धोया ही नहीं | शाही शायरी
apni aankhon ko kabhi Thik se dhoya hi nahin

ग़ज़ल

अपनी आँखों को कभी ठीक से धोया ही नहीं

अमित शर्मा मीत

;

अपनी आँखों को कभी ठीक से धोया ही नहीं
सच कहूँ आज तलक खुल के मैं रोया ही नहीं

मेरे लफ़्ज़ों से मिरा दर्द झलक जाता है
जबकि इस दर्द को आवाज़ में बोया ही नहीं

इक दफ़अ' नींद में ख़्वाबों का जनाज़ा देखा
बा'द उस के मैं कभी चैन से सोया ही नहीं

तंग गलियों में मोहब्बत की भटकते हैं सब
मैं ने कोशिश तो कई बार की खोया ही नहीं

साँस रुक जाए तड़पते हुए यादों में कहीं
हिज्र का बोझ कभी दिल पे यूँ ढोया ही नहीं

मैं कहानी में नया मोड़ भी ला सकता था
मैं ने किरदार को आँसू में भिगोया ही नहीं

अपने रिश्ते का भी अब 'मीत' बिखरना तय था
हम ने विश्वास के धागे में पिरोया ही नहीं