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अपनी आग को ज़िंदा रखना कितना मुश्किल है | शाही शायरी
apni aag ko zinda rakhna kitna mushkil hai

ग़ज़ल

अपनी आग को ज़िंदा रखना कितना मुश्किल है

इशरत आफ़रीं

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अपनी आग को ज़िंदा रखना कितना मुश्किल है
पत्थर बीच आईना रखना कितना मुश्किल है

कितना आसाँ है तस्वीर बनाना औरों की
ख़ुद को पस-ए-आईना रखना कितना मुश्किल है

आँगन से दहलीज़ तलक जब रिश्ता सदियों का
जोगी तुझ को ठहरा रखना कितना मुश्किल है

दोपहरों के ज़र्द किवाड़ों की ज़ंजीर से पूछ
यादों को आवारा रखना कितना मुश्किल है

चुल्लू में हो दर्द का दरिया ध्यान में उस के होंट
यूँ भी ख़ुद को प्यासा रखना कितना मुश्किल है

तुम ने म'अबद देखे होंगे ये आँगन है यहाँ
एक चराग़ भी जलता रखना कितना मुश्किल है

दासी जाने टूटे-फूटे गीतों का ये दान
समय के चरनों में ला रखना कितना मुश्किल है