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अपने वहम-ओ-गुमान से निकला | शाही शायरी
apne wahm-o-guman se nikla

ग़ज़ल

अपने वहम-ओ-गुमान से निकला

अब्दुल मतीन नियाज़

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अपने वहम-ओ-गुमान से निकला
मैं अँधेरे मकान से निकला

बे-रुख़ी देख अब ज़माने की
मुद्दआ' क्यूँ ज़बान से निकला

सम्त का ग़म न था सफ़ीने को
ये अलम बादबान से निकला

धूप बरसा रही थीं तलवारें
फिर भी मैं साएबान से निकला

वक़्त मोहलत न देगा फिर तुम को
तीर जिस दम कमान से निकला

आ गया लीजिए साहिल-ए-हस्ती
मैं बड़े इम्तिहान से निकला

ज़िंदगी का नया मिज़ाज 'नियाज़'
दर्द के ख़ानदान से निकला