अपने वहम-ओ-गुमान से निकला
मैं अँधेरे मकान से निकला
बे-रुख़ी देख अब ज़माने की
मुद्दआ' क्यूँ ज़बान से निकला
सम्त का ग़म न था सफ़ीने को
ये अलम बादबान से निकला
धूप बरसा रही थीं तलवारें
फिर भी मैं साएबान से निकला
वक़्त मोहलत न देगा फिर तुम को
तीर जिस दम कमान से निकला
आ गया लीजिए साहिल-ए-हस्ती
मैं बड़े इम्तिहान से निकला
ज़िंदगी का नया मिज़ाज 'नियाज़'
दर्द के ख़ानदान से निकला
ग़ज़ल
अपने वहम-ओ-गुमान से निकला
अब्दुल मतीन नियाज़