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अपने क़ासिद को सबा बाँधते हैं | शाही शायरी
apne qasid ko saba bandhte hain

ग़ज़ल

अपने क़ासिद को सबा बाँधते हैं

सख़ी लख़नवी

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अपने क़ासिद को सबा बाँधते हैं
सच है शाएर भी हवा बाँधते हैं

फिर सर-ए-दस्त मिरा ख़ूँ होगा
फिर वो हाथों में हिना बाँधते हैं

गठरी फूलों की वो हो जाती है
जिन में वो अपनी क़बा बाँधते हैं

अजी देखें दिल-ए-आशिक़ तो नहीं
आप आँचल में ये क्या बाँधते हैं

ऐ 'सख़ी' आज तो कुछ ख़ैर नहीं
वो कमर हो के ख़फ़ा बाँधते हैं