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अपने मेहवर से जब उतर जाऊँ | शाही शायरी
apne mehwar se jab utar jaun

ग़ज़ल

अपने मेहवर से जब उतर जाऊँ

रज़ी रज़ीउद्दीन

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अपने मेहवर से जब उतर जाऊँ
फूल की तरह फिर बिखर जाऊँ

लौट फिर आऊँ कैसे मेहवर पर
कोई बतलाओ क्या मैं कर जाऊँ

जाने क्या कह रही है दुनिया अब
पहले कहती थी क्यूँ न मर जाऊँ

मुझ से हरगिज़ से न हो सकेगा कभी
ख़ुद को औरों के जैसा कर जाऊँ

डूब जाऊँ भँवर के साथ कहीं
लहर के साथ फिर उभर जाऊँ

लौट आया तो हूँ मैं मेहवर पर
अब ये ख़्वाहिश है फिर बिखर जाऊँ