अपने मरकज़ से अगर दूर निकल जाओगे
ख़्वाब हो जाओगे अफ़्सानों में ढल जाओगे
अब तो चेहरों के ख़द-ओ-ख़ाल भी पहले से नहीं
किस को मालूम था तुम इतने बदल जाओगे
अपने परचम का कहीं रंग भुला मत देना
सुर्ख़ शो'लों से जो खेलोगे तो जल जाओगे
दे रहे हैं तुम्हें तो लोग रिफ़ाक़त का फ़रेब
उन की तारीख़ पढ़ोगे तो दहल जाओगे
अपनी मिट्टी ही पे चलने का सलीक़ा सीखो
संग-ए-मरमर पे चलोगे तो फिसल जाओगे
ख़्वाब-गाहों से निकलते हुए डरते क्यूँ हो
धूप इतनी तो नहीं है कि पिघल जाओगे
तेज़ क़दमों से चलो और तसादुम से बचो
भीड़ में सुस्त चलोगे तो कुचल जाओगे
हम-सफ़र ढूँडो न रहबर का सहारा चाहो
ठोकरें खाओगे तो ख़ुद ही सँभल जाओगे
तुम हो इक ज़िंदा-ए-जावेद रिवायत के चराग़
तुम कोई शाम का सूरज हो कि ढल जाओगे
सुब्ह-ए-सादिक़ मुझे मतलूब है किस से माँगूँ
तुम तो भोले हो चराग़ों से बहल जाओगे
ग़ज़ल
अपने मरकज़ से अगर दूर निकल जाओगे
इक़बाल अज़ीम