अपने लहू से नाम लिखा ग़ैर का भी देख
ज़िंदा है तो शक़ावत-ए-दश्त-ए-बला भी देख
आँखों के आईनों का तो पानी उतर गया
अब जिस्म चोब-ए-ख़ुश्क है ये सानेहा भी देख
होती है ज़िंदगी की हरारत रगों में सर्द
सूखे हुए बदन पे ये चमड़ा कसा भी देख
बेताबियों को सीने के अंदर समेट ले
फ़ित्ने को अपनी हद से मुसलसल बढ़ा भी देख
हर ज़र्रा इब्रतों के समुंदर की शक्ल है
सहरा-नवर्द-ए-शौक़ कभी नक़्श-ए-पा भी देख
पहचान अपनी हो तो मिले मंज़िल-ए-मुराद
'नाहीद' गाहे गाहे सही आइना भी देख

ग़ज़ल
अपने लहू से नाम लिखा ग़ैर का भी देख
किश्वर नाहीद