अपने ख़ूँ से जो हम इक शम्अ जलाए हुए हैं
शब-परस्तों पे क़यामत भी तो ढाए हुए हैं
जाने क्यूँ रंग-ए-बग़ावत नहीं छुपने पाता
हम तो ख़ामोश भी हैं सर भी झुकाए हुए हैं
महफ़िल-आराई हमारी नहीं इफ़रात का नाम
कोई हो या कि न हो आप तो आए हुए हैं
ग़ज़ल
अपने ख़ूँ से जो हम इक शम्अ जलाए हुए हैं
सहर अंसारी