अपने काँधे पे जो हर बोझ उठा सकता है
वो ज़मीं-ज़ाद फ़लक अपना बना सकता है
तेरी क़ुर्बत में ये परदेस से आया हुआ शख़्स
छोड़ कर तुझ को कहीं और भी जा सकता है
जिस की क़िस्मत में हो साहिल पे पहुँचना उस को
एक तिनके का सहारा भी बचा सकता है
मैं दरख़्तों पे कोई नाम नहीं लिख सकता
जो हवा की तरह आया है वो जा सकता है
मैं खिलौने की तरह देख रहा हूँ 'मक़्बूल'
तोड़ने वाला मुझे कितना बना सकता है
ग़ज़ल
अपने काँधे पे जो हर बोझ उठा सकता है
मक़बूल हुसैन सय्यद कर्नल