अपने जीने के हम अस्बाब दिखाते हैं तुम्हें 
दोस्तो आओ कि कुछ ख़्वाब दिखाते हैं तुम्हें 
तुम ने ग़र्क़ाब सफ़ीने तो बहुत देखे हैं 
सर पटकते हुए सैलाब दिखाते हैं तुम्हें 
हुस्न का शोर जो बरपा है ज़रा थमने दो 
इश्क़ का लहजा-ए-नायाब दिखाते हैं तुम्हें 
मेरे फैले हुए दामन के कभी साथ चलो 
मुँह छुपाते हुए अहबाब दिखाते हैं तुम्हें 
छत पे आ जाओ हर इक काम से फ़ारिग़ हो कर 
चाँदनी रात के मेहराब दिखाते हैं तुम्हें 
कैसे आँखों में उतरते हैं लहू के क़तरे 
कैसे बनता है ये तेज़ाब दिखाते हैं तुम्हें 
तुम ज़रा प्यास की मेराज पे पहुँचो तो सही 
रेगज़ारों में भी गिर्दाब दिखाते हैं तुम्हें 
एक मक़्सद के लिए अम्न की तहरीरों में 
ख़ून से लिक्खे हुए बाब दिखाते हैं तुम्हें
        ग़ज़ल
अपने जीने के हम अस्बाब दिखाते हैं तुम्हें
सलीम सिद्दीक़ी

