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अपने होने की तब-ओ-ताब से बाहर न हुए | शाही शायरी
apne hone ki tab-o-tab se bahar na hue

ग़ज़ल

अपने होने की तब-ओ-ताब से बाहर न हुए

अमजद इस्लाम अमजद

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अपने होने की तब-ओ-ताब से बाहर न हुए
हम हैं वो सीप जो आज़ादा-ए-गौहर न हुए

हर्फ़-ए-बे-सौत की मानिंद रहे दुनिया में
दश्त-ए-इम्काँ में खुले नक़्श-ए-मुसव्वर न हुए

फूल के रंग सर-ए-शाख़-ए-ख़िज़ाँ भी चमके
क़ैदी-ए-रस्म-ए-चमन ख़ाक के जौहर न हुए

थक के गिरते भी नहीं घर को पलटते भी नहीं
नज्म-ए-अफ़्लाक हुए आस के ताइर न हुए

उस की गलियों में रहे गर्द-ए-सफ़र की सूरत
संग-ए-मंज़िल न बने राह का पत्थर न हुए

अपनी नाकाम उमीदों के ख़म-ओ-पेच में गुम
अब्र-ए-कम-आब थे हम रिज़्क़-ए-समुंदर न हुए