EN اردو
अपने होने की इहानत नहीं हम कर सकते | शाही शायरी
apne hone ki ihanat nahin hum kar sakte

ग़ज़ल

अपने होने की इहानत नहीं हम कर सकते

जलील ’आली’

;

अपने होने की इहानत नहीं हम कर सकते
सो तिरी याद से ग़फ़लत नहीं हम कर सकते

दिल में लाते नहीं दुश्मन से भी नफ़रत का ख़याल
इस से कम कोई इबादत नहीं हम कर सकते

दूर रहते हैं तकब्बुर की हवा से लेकिन
इज्ज़ को ग़ाफ़िल-ए-ग़ैरत नहीं हम कर सकते

मस्लहत सहर बहुत फूँकती फिरती है भरे
कम क़द-ओ-क़ामत-ए-वहशत नहीं हम कर सकते

ढेर तफ़रीह-ए-तन-ओ-जाँ के लगा दो जितने
तर्क इक दर्द की दौलत नहीं हम कर सकते

छोड़ सकते हैं ये सब सहन-ओ-दर-ओ-बाम-ए-जहाँ
क़रिया-ए-ख़्वाब से हिजरत नहीं हम कर सकते

तुम ज़मीं पर जो ख़ुदा बनते चले जाते हो
क्या समझते हो बग़ावत नहीं हम कर सकते

जिस रविश भी हो रवाँ ग़ोल-ए-ज़माना 'आली'
आप से कोई रिआयत नहीं हम कर सकते