अपने ही शब ओ रोज़ में आबाद रहा कर 
हम लोग बुरे लोग हैं हम से न मिला कर 
शायद किसी आवाज़ की ख़ुश्बू नज़र आए 
आँखें हैं तो ख़्वाबों की तमन्ना भी किया कर 
बातों के लिए शिकवा-ए-मौसम ही बहुत है 
कुछ और किसी से न कहा कर न सुना कर 
सोने दे उन्हें रंग जो सोए हैं बदन में 
आवारा हवाओं को न महसूस किया कर 
तू सुब्ह-ए-बहाराँ का हसीं ख़्वाब है फिर भी 
आहिस्ता ज़रा ओस की बूँदों पे चला कर
        ग़ज़ल
अपने ही शब ओ रोज़ में आबाद रहा कर
रईस फ़रोग़

