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अपने ही सज्दे का है शौक़ मेरे सर-ए-नियाज़ में | शाही शायरी
apne hi sajde ka hai shauq mere sar-e-niyaz mein

ग़ज़ल

अपने ही सज्दे का है शौक़ मेरे सर-ए-नियाज़ में

जिगर बरेलवी

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अपने ही सज्दे का है शौक़ मेरे सर-ए-नियाज़ में
का'बा-ए-दिल है सामने महव हूँ मैं नमाज़ में

बीना है गर तो ख़ाक डाल दीदा-ए-इम्तियाज़ में
जाम ओ ख़ुम-ओ-सुबू न देख मय-कदा-ए-मजाज़ में

किस का फ़रोग़-ए-अक्स है कौन है महव-ए-नाज़ में
कौंद रही हैं बिजलियाँ आईना-ए-मजाज़ में

सुब्ह-ए-अज़ल है सुब्ह-ए-हुस्न शाम-ए-अबद है दाग़-ए-इश्क़
दिल है मक़ाम-ए-इर्तिबात सिलसिला-ए-दराज़ में

पर्दा-ए-ए'तिबार-ए-ग़ैर पैरहन-ए-ख़ुदी है चाक
हुस्न-ए-अज़ल है जल्वा-रेज़ सदमा-ए-दिल-गुदाज़ में

अक़्ल-ओ-शुऊर भी हैं क्या उक़्दा-ए-राज़-ए-दहर हैं
रह गए और उलझ के हम सई-ए-कशूद-ए-राज़ में

याद किसी की आ गई कट गई ज़िंदगी की रात
वर्ना कहाँ नुमूद-ए-सुब्ह ऐसी शब-ए-दराज़ में

दफ़्न है दिल जगह जगह का'बा है गाम गाम पर
सज्दा कहाँ कहाँ करे कोई हरीम-ए-नाज़ में

हुस्न के आस्ताने पर नासिया रख के भूल जा
फ़िक्र-ए-क़ुबूल-ओ-रद न कर पेश-कश-ए-नियाज़ में

ख़ून के आँसुओं से है ज़ीनत-ए-हुस्न-ए-दिल 'जिगर'
चाहिए दाग़-ए-इश्क़ भी सीना-ए-पाक-बाज़ में