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अपने ही साए में था में शायद छुपा हुआ | शाही शायरी
apne hi sae mein tha mein shayad chhupa hua

ग़ज़ल

अपने ही साए में था में शायद छुपा हुआ

फ़ारिग़ बुख़ारी

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अपने ही साए में था में शायद छुपा हुआ
जब ख़ुद ही हट गया तो कहीं रास्ता मिला

जलते रहे हैं अपने ही दोज़ख़ में रात दिन
हम से ज़ियादा कोई हमारा अदू न था

देखा न फिर पलट के किसी शहसवार ने
मैं हर सदा का नक़्श-ए-क़दम खोजता रहा

दीवार फाँद कर न यहाँ आएगा कोई
रहने दो ज़ख़्म-ए-दिल का दरीचा खुला हुआ

निकला अगर तो हाथ न आऊँगा फिर कभी
कब से हूँ इस बदन की कमाँ में तना हुआ

बेदार हैं शुऊ'र की किरनें कहीं कहीं
हर ज़ेहन में है वहम का तारीक रास्ता

जू-ए-नशात बन के बहा ले गई मुझे
आवाज़ थी कि साज़-ए-जवानी का अक्स था

इतना भी कौन होगा हलाक-ए-फ़रेब-ए-रंग
शब उस ने मय जो पी है तो मुझ को नशा हुआ

'फ़ारिग़' हवाए दर्द ने लौटा दिया जिसे
आएगा एक दिन मिरा घर पूछता हुआ