EN اردو
अपने ही लोग अपने नगर अजनबी लगे | शाही शायरी
apne hi log apne nagar ajnabi lage

ग़ज़ल

अपने ही लोग अपने नगर अजनबी लगे

क़ैसर अब्बास

;

अपने ही लोग अपने नगर अजनबी लगे
वापस गए तो घर की हर इक शय नई लगे

ख़ानों में बट चुकी थी समुंदर की वुसअतें
दरिया मोहब्बतों के सिमटती नदी लगे

रातों की भेंट चढ़ गए वो चाँद जैसे लोग
तारीकियों के देव जिन्हें काग़ज़ी लगे

सोना समेटती थी जहाँ खेतियों में धूप
वो फ़स्ल मेरे गाँव की ख़ाशाक सी लगे

रावी की शाम सिंध की निखरी हुई सहर
काम आ सके तो उन को मिरी ज़िंदगी लगे

'क़ैसर' दिलों के फ़ासले ऐसे न थे कभी
दो गाम तय करूँ तो मुझे इक सदी लगे