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अपने ही आप में असीर हूँ मैं | शाही शायरी
apne hi aap mein asir hun main

ग़ज़ल

अपने ही आप में असीर हूँ मैं

सुलैमान अहमद मानी

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अपने ही आप में असीर हूँ मैं
अपने ज़िंदाँ में बे-नज़ीर हूँ मैं

एक शहर-ए-ख़याल है मेरा
अपने इस शहर का अमीर हूँ मैं

बढ़ता जाता है ज़िंदगी का ख़त
एक घटती हुई लकीर हूँ मैं

क्यूँ बुलाते हो अब जहाँ वालो
एक गोशा-नशीं फ़क़ीर हूँ मैं

क़र्ज़ इस दिल पे उल्फ़तों के हैं
दोस्तों का करम अमीर हूँ मैं

खिच के यूँ ही कमान में हूँ क़ैद
छूट जाऊँ तो एक तीर हूँ मैं

मैं ने देखी है वक़्त की करवट
मुझ को देखो कि इक बसीर हूँ मैं