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अपने हमराह मोहब्बत के हवाले रखना | शाही शायरी
apne hamrah mohabbat ke hawale rakhna

ग़ज़ल

अपने हमराह मोहब्बत के हवाले रखना

शाहिद फ़रीद

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अपने हमराह मोहब्बत के हवाले रखना
कितना दुश्वार है इक रोग को पाले रखना

इतना आसान नहीं बंद गली में रहना
शहर-ए-तारीक में यादों के उजाले रखना

हम ज़ियादा के तलबगार नहीं हैं लेकिन
वक़्त कुछ बहर-ए-मुलाक़ात निकाले रखना

बात कर लेंगे जुदाई पे कहीं बा'द में हम
अपने होंटों पे सर-ए-बज़्म तो ताले रखना

काम आएँगे किसी रोज़ तुम्हारे ये गुहर
अपने अश्कों को मिरी जान सँभाले रखना

झील पर जैसे कोई काली घटा छा जाए
नीली आँखों पे घनी पलकों को डाले रखना

उस को उजड़े हुए लोगों से है उल्फ़त 'शाहिद'
बाल बिखराए हुए पाँव में छाले रखना