अपने घर को वापस जाओ रो रो कर समझाता है
जहाँ भी जाऊँ मेरा साया पीछे पीछे आता है
उस को भी तो जा कर देखो उस का हाल भी मुझ सा है
चुप चुप रह कर दुख सहने से तो इंसाँ मर जाता है
मुझ से मोहब्बत भी है उस को लेकिन ये दस्तूर है उस का
ग़ैर से मिलता है हँस हँस कर मुझ से ही शरमाता है
कितने यार हैं फिर भी 'मुनीर' इस आबादी में अकेला है
अपने ही ग़म के नश्शे से अपना जी बहलाता है
ग़ज़ल
अपने घर को वापस जाओ रो रो कर समझाता है
मुनीर नियाज़ी