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अपने घर की खिड़की से मैं आसमान को देखूँगा | शाही शायरी
apne ghar ki khiDki se main aasman ko dekhunga

ग़ज़ल

अपने घर की खिड़की से मैं आसमान को देखूँगा

अमजद इस्लाम अमजद

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अपने घर की खिड़की से मैं आसमान को देखूँगा
जिस पर तेरा नाम लिखा है उस तारे को ढूँडूँगा

तुम भी हर शब दिया जला कर पलकों की दहलीज़ पे रखना
मैं भी रोज़ इक ख़्वाब तुम्हारे शहर की जानिब भेजूँगा

हिज्र के दरिया में तुम पढ़ना लहरों की तहरीरें भी
पानी की हर सत्र पे मैं कुछ दिल की बातें लिखूँगा

जिस तन्हा से पेड़ के नीचे हम बारिश में भीगे थे
तुम भी उस को छू के गुज़रना मैं भी उस से लिपटूँगा

ख़्वाब मुसाफ़िर लम्हों के हैं साथ कहाँ तक जाएँगे
तुम ने बिल्कुल ठीक कहा है मैं भी अब कुछ सोचूँगा

बादल ओढ़ के गुज़रूँगा मैं तेरे घर के आँगन से
क़ौस-ए-क़ुज़ह के सब रंगों में तुझ को भीगा देखूँगा

बे-मौसम बारिश की सूरत देर तलक और दूर तलक
तेरे दयार-ए-हुस्न पे मैं भी किन-मिन किन-मिन बरसूँगा

शर्म से दोहरा हो जाएगा कान पड़ा वो बुंदा भी
बाद-ए-सबा के लहजे में इक बात में ऐसी पूछूँगा

सफ़्हा सफ़्हा एक किताब-ए-हुस्न सी खुलती जाएगी
और उसी की लय में फिर मैं तुम को अज़बर कर लूँगा

वक़्त के इक कंकर ने जिस को अक्सों में तक़्सीम किया
आब-ए-रवाँ में कैसे 'अमजद' अब वो चेहरा जोड़ूँगा