अपने एहसास-ए-शरर-बार से डर लगता है
अपनी ही जुरअत-ए-इज़हार से डर लगता है
इतनी राहों की सऊबत से गुज़र जाने के बा'द
अब किसे वादी-ए-पुर-ख़ार से डर लगता है
कितने ही काम अधूरे हैं अभी दुनिया में
उम्र की तेज़ी-ए-रफ़्तार से डर लगता है
सारी दुनिया में तबाही के सिवा क्या होगा
अब तो हर सुब्ह के अख़बार से डर लगता है
ख़ुद को मनवाऊँ ज़माने से तो टुकड़े हो जाऊँ
कुछ रिवायात की दीवार से डर लगता है
शौक़-ए-शोरीदा के हाथों हुए बदनाम बहुत
अब तो हर जज़्बा-ए-बेदार से डर लगता है
जानती हूँ कि छुपे रहते हैं फ़ित्ने इस में
आप की नर्मी-ए-गुफ़्तार से डर लगता है
ग़ज़ल
अपने एहसास-ए-शरर-बार से डर लगता है
अज़रा नक़वी