अपने दुखों का हम ने तमाशा नहीं किया 
फ़ाक़े किए मगर कभी शिकवा नहीं किया 
बे-घर हुए तबाह हुए दर-ब-दर हुए 
लेकिन तुम्हारे नाम को रुस्वा नहीं किया 
गो हम चराग़-ए-वक़्त को रौशन न कर सके 
पर अपनी ज़ात से तो अँधेरा नहीं किया 
इस पर भी हम लुटाते रहे दौलत-ए-यक़ीं 
इक पल भी जिस ने हम पे भरोसा नहीं किया 
उस शख़्स के लिए भी दुआ गो रहे हैं हम 
जिस ने हमारे हक़ में कुछ अच्छा नहीं किया 
हालाँकि एहतिराम सभी का किया मगर 
हम ने किसी को क़िबला-ओ-काबा नहीं किया 
'तारिक़-मतीन' खाते रहे उम्र-भर फ़रेब 
लेकिन किसी के साथ भी धोका नहीं किया
        ग़ज़ल
अपने दुखों का हम ने तमाशा नहीं किया
तारिक़ मतीन

